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गंगा ज्ञान सागर-

गंगा ज्ञान सागर-

स्वर्गीय गंगा प्रसाद उपाध्याय जी की पुण्यतिथि 21 अगस्त पर श्रद्धा सुमन।IMG-20230823-WA0023
 

गंगा ज्ञान सागर 4 खण्ड। सजिल्द। 9.5"X7.5"

2000 पृष्ठ।

मँगवाने के लिए 7015591564 पर वट्सएप द्वारा सम्पर्क करें।

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पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय धर्म व दर्शन के विषय पर लिखने वाले विश्वप्रसिद्ध लेखकों में से एक है। पंडित जी की कृतियाँ विचारोत्तेजक, मौलिक व अत्यन्त रोचक हैं। पंडित जी की कृति बालकों, युवकों, ग्रामीणों, विद्वानों, विदेशियों सभी के लिए है। उपाध्याय जी ने अनेकों दीर्घ, लघु पुस्तकों की रचना की थी। ये सभी पुस्तकें दार्शनिक, धार्मिक, व्यवहारिक ज्ञान से ओतप्रोत होती है। उपाध्याय जी की अनेकों पुस्तकें आज अत्यन्त ही दुर्लभ एवं अप्राप्य है। जिससे पाठकगण उनके अनेकों साहित्यों के अवलोकन से वंचित रह जाता है। अतः इस समस्या के समाधानार्थ श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने गंगाप्रसाद उपाध्याय जी की अत्यन्त महत्वपूर्ण कृतियों का संग्रह करके प्रस्तुत ग्रंथ समुच्चय “गंगा ज्ञान सागर” में प्रकाशित करवाया है। प्रस्तुत ग्रंथ गंगा ज्ञान अपने नाम के अनुरुप ही ज्ञान का सागर है। प्रस्तुत ग्रंथ चार भागों में विभक्त है जिसमें दुर्लभ लेखों के संग्रह के साथ – साथ अन्य भाषा में प्रकाशित साहित्यों का हिन्दी अनुवाद भी संग्रहित है जैसे – तृतीय भाग में बारी तआला नामक उर्दू साहित्य का हिन्दी अनुवाद आस्तिकता भी दिया गया है। इन भागों में प्रसिद्ध साहित्य धर्म सुधासार, कर्मफल सिद्धान्त, मैं और मेरा भगवान, जीवात्मा, कलादेवी की सच्ची कहानी संग्रहित है। 

आर्यसमाज का वेद-विषयक दृष्टिकोण

डॉ० गंगा प्रसाद उपाध्याय

श्रीयुत पं० जवाहरलाल नेहरू जी ने अभी हाल में एक उत्तम पुस्तक लिखी है जिसका नाम है 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' (Discovery of India)। उसमें अनेक उत्तम-उत्तम बातों के अतिरिक्त आर्यसमाज और वेदों के विषय में दो उल्लेखनीय वाक्य हैं-

1. Many Hindus look upon the Vedas as revealed scriptures. This seems to me to be peculiarly unfortunate, for thus we miss their real significance the unfolding of the human mind in the earliest stages of thought.

2. Its slogan was back to the Vedas. This slogan really meant an elimination of development of the Aryan faith since the Vedas.

1. बहुत से हिन्दू वेदों को ईश्वर-कृत मानते हैं। मैं इसको बड़ा दुर्भाग्य समझता हूं, क्योंकि इसमें वेदों की वास्तविक उपयोगिता जाती रहती है अर्थात् विचार के आरंभ-काल में मानवी मस्तिष्क ने कितना विकास किया।

2. आर्य समाज ने घोषणा की कि 'वेदों की ओर लौटो'। इस घोषणा का अर्थ यह है कि वेदों के काल से लेकर आर्य धर्म में जो विकास हुआ उसका परित्याग कर दिया जाए।

इन दोनों वाक्यों का एक-दूसरे से सम्बन्ध है। अर्थ प्रायः एक ही है अर्थात् वेदों की यह उपयोगिता तो है कि संसार के आरंभकाल में मानवी मस्तिष्क ने जो उन्नति की उसका पता लग जाए, परंतु यदि हम वेदों को ईश्वर-कृत मान लें तो वेद आज भी आचरण करने योग्य पुस्तक सिद्ध हो जाते हैं। ऋषि दयानन्द का दृष्टिकोण वेदों के विषय में श्री पं० जवाहरलाल से भिन्न था और आजकल के संस्कृतज्ञों का लगभग वही दृष्टिकोण है जो पं० जवाहरलाल जी का। परंतु यह तो निश्चित है कि स्वामी दयानन्द का दृष्टिकोण वही है जो प्राचीन ऋषियों का है। यहां तक कि श्री शंकराचार्य जी आदि मध्यकालीन आचार्य भी वेदों को ईश्वरकृत ही मानते आए हैं। श्री शंकर स्वामी ने बौद्धों का खण्डन भी इसीलिए किया था कि वे श्रुति को स्वतः प्रमाण मानते हैं। वे लिखते हैं कि वेद सूर्यवत् स्वतः प्रमाण हैं। अन्य शास्त्रों को उन्होंने स्मृति की कोटि में गिना है जो परतः प्रमाण हैं।

पं० जवाहरलाल जी का कहना है कि हम वेदों का मान तो करते हैं परन्तु हम आज उन पर चलने के लिए तैयार नहीं। दृष्टान्त के तौर पर आप आज स्टीवेन्सन के रैकिट नामक इंजन को लीजिए। यह सबसे पहला इंजन था। रेलगाड़ी के इतिहास में जॉर्ज स्टीवेन्सन का नाम अमर रहेगा और रैकिट को लोग बड़े सम्मान से याद करते हैं क्योंकि जितने इंजन आजकल चल रहे हैं या जितने भविष्य में चलेंगे उन सबका आदि-पुरुष (लकड़दादा) रैकिट था। परन्तु कोई इंजन चलानेवाला आज रेल में रैकिट को लगाने के लिए तैयार न होगा। रैकिट इंजनों का पूर्वज तो है, परन्तु विकसित नहीं है। आजकल उन्नति करते-करते इंजनों में बहुत बड़ा सुधार हो गया है। यही हाल वेदों का है। वेद हमारी प्राचीनतम पुस्तकें हैं, हमारे ऋषियों की महती कृति हैं, परन्तु उस समय से लेकर आज तक इतनी उन्नति हो चुकी है कि वेदों की हम पूजा कर सकते हैं, परन्तु उनके अनुकूल आचरण नहीं कर सकते। वेदों का मूल्य तो है परन्तु ऐतिहासिक, न कि व्यावहारिक; वे पुराने सिक्के हैं- अद्भुतालय में रखने के योग्य, प्रदर्शनी में प्रदर्शन के योग्य। परन्तु इस योग्य नहीं कि आधुनिक काल में उनको पथ-प्रदर्शक समझा जा सके।

यह है मौलिक भेद पं० जवाहरलाल जी के दृष्टिकोण में और आर्य समाज के दृष्टिकोण में। और यदि पण्डित जी की बात ठीक है तो आर्य समाज की नींव ही धड़ाम से नीचे आ गिरती है और ऋषि दयानन्द का किया-कराया सब नष्ट हो जाता है। वेदों का ऐतिहासिक मूल्य तो ईसाई और मुसलमान भी मानने के लिए तैयार हैं। प्रत्येक पुस्तक का ऐतिहासिक मूल्य है क्योंकि वह अपने युग के विषय में कुछ बताती है, परन्तु इतने से वह धार्मिक पुस्तक नहीं हो सकती।

यहां एक प्रश्न उठता है और वह वेदों की आन्तरिक साक्षी पर निर्भर है- क्या वेदों की शिक्षा ऐसी है, जैसे मनुष्य के बचपन की चीज होती है अर्थात् अधूरी और धुंधली? और जो वेदों के पश्चात् मनुष्यों ने वेदों के अतिरिक्त जो कुछ अन्वेषण किया वह अधिक स्पष्ट और अधिक पूर्ण है? क्या यह ज्ञात होता है कि जैसे तेल का मिट्टी का दीपक मनुष्य ने पहले बनाया, और अब बिजली के बल्ब बनाए जो अधिक उपयोगी और अधिक पूर्ण है, इसी प्रकार वेदों में जो सिद्धान्त दिए गए हैं, वे अपूर्ण और धुंधले हैं और आजकल जो विकास हुआ है वह अधिक तात्त्विक, अधिक उपयोगी और स्पष्ट है?

यह बात तो ठीक है कि वेदों का आविर्भाव मानव-जाति के बाल्यकाल की चीज है, परन्तु बाल्यकाल का अर्थ है क्या? इसके दो अर्थ हो सकते हैं। पहला यह कि जब वेदों का आविर्भाव हुआ तो मानव-जाति को उत्पन्न हुए बहुत समय व्यतीत नहीं हुआ था। सृष्टि के कितने पदार्थ हैं तो मानव-जाति के बाल्यकाल में हुए परन्तु वे सर्वथा पूर्ण थे, जैसे सूर्य, चन्द्र, वायु आदि। सूर्य में तत्पश्चात् क्या उन्नति हुई यह कहना कठिन है। दूसरा अर्थ यह है कि मनुष्य के अपने बाल्यकाल में जो वस्तुएं बनाई वे सर्वथा अविकसित थीं, आरम्भ-मात्र थीं। शनैः-शनैः उत्तरोत्तर उन्नति होती गई, जैसे कपड़े, मकान, बर्तन इत्यादि। अब प्रश्न यह है कि जब हम कहते हैं कि वेद मानव-जाति के बाल्यकाल की वस्तु है तो इन दोनों में से हमको कौन-सा अर्थ अभिप्रेत है? यदि वेदों को मनुष्य ने अनुभवशून्य और अधमतम अवस्था में आरम्भ किया जैसे बच्चा आरम्भ में पाठशाला में भरती होते किया करता है, तो वेदों का शब्दविन्यास सर्वथा संकुचित, वेदों का अलंकार हर प्रकार से भोंडे वेदों के भाव सर्वथा अशिक्षित, अनुभवशून्य, वेदों के छन्द सर्वथा बेतुके होने चाहिएं और वेदों के पश्चात् आने वाली पुस्तकों की भाषा विकसित, भाव परिमार्जित, सिद्धान्त पूर्ण दार्शनिक, युक्तियां सर्वथा विशद, अलंकार सर्वथा समुन्नत और कोमल होने चाहिएं। वेदों की भाषा और भावों में वर्तमान ग्रन्थों की भाषा और भाव की अपेक्षा उतनी ही कमी होनी चाहिए, जितनी आजकल के वायुयान और पुरानी भैंसों की गाड़ी में है। यदि ऐसा है तो हम मान लेंगे कि वेदों का ईश्वरकृत होना गलत है और वेद हमारे पूर्वजों की उस समय की कृति है, जब उन्होंने उन्नति का मार्ग बनाना आरम्भ ही किया था। अभी भूमि-खनन ही आरम्भ हुआ था। सीमेंट की सड़क की स्वच्छता और सुगमता प्राप्त न थी। यदि ऐसा ठीक है तो यह भी कहना पड़ेगा कि वेद हमारी पूजा के योग्य अवश्य हैं क्योंकि वे पुराने हैं, परन्तु वे प्रयोग में लाने के योग्य नहीं।

और यदि पहला अर्थ है अर्थात् वेदों की भाषा अत्यन्त विशद, भाव समुन्नत और सिद्धान्त विकसित है तो दो बातों में से एक अवश्य ही ठीक होगी। या तो वेद सूर्य के समान ईश्वरकृत होंगे, या जब मानव-जाति की अपेक्षा प्रारम्भिक और अपूर्ण तथा अविकसित होना चाहिए। आज जो कुछ मैं लिख रहा हूं, वह विकास की एक नियत अवस्था में प्राप्त हो चुका है। साठ वर्ष पूर्व जब मैं पाठशाला में भरती ही हुआ था और लकड़ी की पट्टी पर लिखता था, उस समय के मेरे अक्षरों और आजकल के अक्षरों में भेद है। परन्तु यदि मेरी कोई पुरानी कापी मिल जाय और उसमें अत्यन्त सुन्दर अक्षर मिलें तो यही कहना पड़ेगा कि वह अक्षर मेरे नहीं अपितु किसी अधिक विकसित पुरुष के हैं।

इस प्रकार वेदों के विषय में तीन सम्भावनाएं हो सकती हैं-

(1) वेद अत्यन्त अपूर्ण और प्रारम्भिक हैं। इसीलिए पिछली शताब्दी के विद्वान् वेदों को गड़रियों के गीत या बच्चों की बिलबिलाहट बताया करते थे।

(2) वेद अत्यन्त विशद, विकसित और ऐसी अवस्था के हैं जब मनुष्य-जाति पूर्ण विकास को प्राप्त हो चुकी थी। उस दशा में उनका अविकसित या अर्द्ध-विकसित साहित्य मिलना चाहिए, जो वेदों से पूर्व था, जिससे पता चल जाए कि वेदों तक पहुंचने से पूर्व मानव-जाति के साहित्य को किस-किस अवस्था में होकर गुज़रना पड़ा। इसके साथ ही यह भी सिद्ध होना चाहिए कि वैदिक काल के पश्चात् मानवी भाषा और भावों ने इतनी उन्नति और की।

(3) यह कि वेद हैं तो प्राचीनतम, परन्तु इतने विकसित और पूर्ण हैं कि इनको मानवी कृति कहना ही असंभव है।

स्वामी दयानन्द और आर्य समाज की तीसरी पोजीशन है और स्वामी दयानन्द से पूर्व के ऋषि-मुनि तथा मध्यकालीन आचार्यों का भी यही मत रहा है। मनुष्य ने उन्नति की है और उनके विभागों में, परन्तु उसकी कृति वेदों से अब भी उतनी पीछे है जितनी बिजली के लैम्प सूर्य से पीछे हैं। सूर्य अत्यन्त प्राचीन और अत्यन्त पूर्ण है। आरम्भिक इसलिए है कि सृष्टि के आरम्भ में हुआ। पूर्ण इसलिए है कि मनुष्य ने बनाया नहीं। सूर्य की उत्पत्ति के समय मनुष्य का बाल्यकाल अवश्य था। उसका अनुभव भी शून्य के समान था। परन्तु जो चीज़ उसकी बनाई न थी उसमें पूर्णता थी। विद्यार्थी की कापी पर अध्यापक उसके अनुकरण के लिए जो पहली सुन्दर पंक्ति लिख देता है वह प्रारंभिक होते हुए भी पूर्ण होती है, क्योंकि प्रारंभिक तो बच्चों की अपेक्षा से है। जिस गुरु ने लिखा है उसका बाल्यकाल नहीं, वह तो पहले से विकसित हो चुका है।

ऋग्वेद ने इस विषय में एक बात लिखी है जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वेद में लिखा है-

"सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्"। (ऋग्वेद १०/१९०/३)

यह छोटा-सा मन्त्र है और पूर्ण परिचित, परन्तु इसके महत्त्व पर लोगों ने विचार नहीं किया। इसका अर्थ यह है कि परमात्मा ने इस कल्प में सूर्य-चन्द्र आदि को उसी प्रकार बनाया जैसे पूर्वकल्पों में 'यथापूर्व'। यह विशेष वाक्य है। इसके अर्थ बड़े विस्तृत हैं। इससे पता चलता है कि सृष्टि को बनानेवाली कोई नई अनुभव अप्राप्त प्रारंभिक शक्ति नहीं है। यह शक्ति पूर्ण है। अत्यन्त पुरानी है। सृष्टि के विषय में यह धारणा भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों तक जाती है। यह अपूर्ण और अविकसित या अर्द्धविकसित भावना नहीं हो सकती। वेदों के 'धाता' और 'यथा-पूर्व' पर विचार कीजिए। मनुष्य कर्त्ता हो सकता है, परन्तु 'धाता' नहीं। 'धाता' और 'विधाता' का परस्पर सम्बन्ध है। वास्तविक विधाता तो धाता ही है जिसने न केवल सृष्टि को बनाता है अपितु धारण भी करता है।

इस विषय में वेदों के पश्चात् आनेवाले साहित्य ने क्या उन्नति की? यह देखना है। वेदों के पश्चात् का साहित्य दो भागों में बंटा है- एक वैदिक और दूसरा अवैदिक। वैदिक साहित्य तो वेदों की ही नकल है।

श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छत्।

वेद अपौरुषेय और समस्त ऋषि-कृत साहित्य समझा जाता है।

दूसरा अवैदिक वेदों के विरोध अथवा उपेक्षा में बनाया गया है। कुर्आन, बाइबल आदि में उपर्युक्त मंत्र के भाव से विशद क्या कोई भाव मिलता है? यदि मिलता है और उत्तरकालीन पुस्तकों में इतना ही विशद है तो इसको अनुकरण कहेंगे। यदि कम मिले तो कहेंगे कि साहित्य में अवनति आ गई, और यदि इससे बढ़कर कोई विचार है तो कौन-से ऋषि अपनी अन्तरात्मा में सृष्टि के आरम्भकाल में इस भाव को 'देख' सके- उनकी चक्षु कितनी विचित्र और विकसित रही होगी!

अब थोड़ा-सा भाषा-सम्बन्धी बातों पर विचार कीजिए। ध्वनि, शब्द, वाक्य, छन्द इत्यादि अनेक बातें है जिनसे वेदों की विशदता का परिज्ञान हो सकता है। केवल भाषामात्र एक बात नहीं, अपितु कई बातें हैं, संज्ञाओं के रूप में उनका रूपान्तर, क्रियाओं के रूपान्तर इत्यादि। विद्वानों का कहना है कि संस्कृत भाषा संसार की सब भाषाओं में विशदतम है। 'धाता' 'अकल्पयत्' इन दो शब्दों में निहित भावों पर विचार कीजिए। सृष्टि का विधाता मेज़ के बनानेवाले बढ़ई के समान नहीं। बढ़ई विधाता है धाता नहीं, विधाता भी क्यों कहो? बढ़ई जिस प्रकार मेज़-विधाता है उसमें वैसा विधातृत्व अथवा धातृत्व कहाँ? वह तो बाहरी वस्तु को घड़ देता है। उसका और लकड़ी का बाह्य संपर्क है। कल्पना कीजिए उस मस्तिष्क की विशदता का जिसने सृष्टि-कर्त्ता के लिए विधाता या धाता शब्द का उपयोग किया।

अच्छा, ऋग्वेद के एक और छोटे-से वाक्य को लीजिए-

"एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं" (ऋग्वेद १/१६४/४६)

समस्त सृष्टि के 'एकत्व' और उसके रचयिता के 'एकत्व' का भाव क्या बच्चों की अनुभवशून्य अवस्था का भाव है? क्या आज तक दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, धर्म-संस्थापकों आदि ने इससे विशद भाव का आविर्भाव किया? ईश्वर का एकत्व और उसके गुणों और उन गुणों के सूचक शब्दों का बहुत्व कितनी बड़ी बात है! "विप्रा बहुधा वदन्ति" की मनोवैज्ञानिक महत्ता पर विचार कीजिए। मानवी मस्तिष्क की प्रगतियों की भिन्नता को देखिए- "विचित्र-रूपा: खलु चित्तवृत्तय:"। संसार की वस्तुओं को देखते समय मनुष्य भी भावनाओं में कितनी विभिन्नता होती है और उस विभिन्नता से प्रेरित होकर उसके शब्दों में कितनी विभिन्नता आ जाती है! परन्तु उस समस्त विभिन्नता के पीछे सत्यता की एकता कैसी छिपी है। सत्य एक है, शब्द अनेक हैं। ईश्वर एक और उसके सूचक शब्द अनेक। वेदों के पश्चात् उनकी प्रतिद्वन्दिता में अनेक सिद्धान्त और मतों की स्थापना हुई, परन्तु क्या किसी संस्थापक ने इससे अच्छा कोई विचार पेश किया? कई नवीन धर्म इस बात का दावा करते हैं कि उन्होंने एक ईश्वरवाद की स्थापना की। यह सम्भव है कि अनेक-ईश्वरवाद के प्रचार की अवस्था में उन्होंने कुछ सुधार किया हो, परन्तु ईश्वर का जो स्वयं वेदों ने अति प्राचीन काल में स्वरूप रखा वह पीछे के मतों में दृष्टिगोचर नहीं होता।

समाजवाद का सबसे अच्छा सिद्धान्त वर्णाश्रम-धर्म है। यह समाज-सिद्धान्त सूर्य की भांति प्राचीनतम है और सूर्य के समान ही पूर्ण। इसमें पीछे से अवनति तो हुई, परन्तु उन्नति नहीं हुई। आधुनिक साम्यवाद पूंजीवाद की अपेक्षा उत्कृष्ट हो सकता है, परन्तु यह न टिकाऊ है न सर्वोत्कृष्ट। मानव-जाति के अनेक व्यक्ति जब स्वभाव से ही सम नहीं तो उनका जीवन का पुरोगम समान कैसे हो सकता है? कहीं-न-कहीं तो भेद करना ही पड़ेगा। यह भेद गुण-कर्म-स्वभावानुसार ही अत्यन्त नैसर्गिक और कल्याणप्रद हो सकता है।

इसी प्रकार जीवन के अनेकानेक सिद्धान्त हैं जिनका वेदोक्त रूप ही पूर्णतम कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक बात पर विचार कीजिए। समाज की नींव है विवाह-व्यवस्था। वेदों में विवाह की एक-पति-भाव और एक-पत्नी-भाव की जो व्यवस्था है उससे अच्छी कोई व्यवस्था नहीं है-

इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्।

क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे।। (ऋग्वेद १०/८५/४२)

इसमें दाम्पत्य भाव का कितना उच्चतम चित्रण है! स्त्री-पुरुष घर में साथ रहें। कभी अलग न हों, पुत्रों और पौत्रों के साथ आनन्द से रहें। वैदिक काल के पश्चात् विवाह-व्यवस्था में जो-जो जहां-जहां परिवर्तन हुए, उन्होंने समाज में आपत्तियां तो उत्पन्न कर दीं, उनसे समाज की बुराइयां दूर नहीं हुईं। आजकल वैज्ञानिक युग में विवाह में जो सुधार हो रहे हैं उनसे विवाह-व्यवस्था की जड़ ही कट रही है। अमीर लोग धोखे में हैं। वे समझते हैं कि दाम्पत्य दासता को दूर करने से वे सुखी हो जाएंगे, परन्तु वे यह नहीं देखते कि जिस समाजरूपी वृक्ष को वे सींचना चाहते हैं उसी की जड़ कट रही है! आजकल प्रत्येक युवक पति तो बनना चाहता है परन्तु उसको पिता बनना स्वीकार नहीं। प्रत्येक युवती को माता और जननी बनने से घृणा है। वह कर्त्तव्य की मर्यादा को दासता की बेड़ी समझकर तोड़ना चाहती है। यह वैदिक सिद्धान्तों के ऊपर सुधार है या बिगाड़? इसी प्रकार एक और बात लीजिए। कहते हैं कि वैदिक काल में मनुष्य जंगली थे। रहे होंगे। हमको आक्षेप नहीं। सृष्टि के आरम्भ में जंगल बहुत थे। ऋषि लोग जंगल में ही रहते होंगे। भवन-निर्माण की व्यवस्था पीछे से हुई होगी जबकि वैदिक ज्ञान को कार्य में परिणत किया होगा। परन्तु जंगल में रहना पाप नहीं, जंगल-कानून (Law of Jungle) को बरतना पाप है। आज उच्च और गगनचुम्बी भवनों के रहने वाले भेड़ियों और चीतों की तरह एक-दूसरे के रक्त के प्यासे रहते हैं। वेद के आदर्श को देखिए-

"अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या" (अथर्ववेद ३/३०/१)

इस प्रकार एक-दूसरे के साथ व्यवहार करो जैसे गाय अपने नवजात बच्चे के साथ करती है। इतना उच्च आदर्श मानव-जाति के शैशव-काल में कैसे स्थापित हो सकता है जब तक कोई पूर्ण शक्ति उनका नेतृत्व न करे, और यदि वैदिक आदर्श इतना उच्च हो सकता है तो सृष्टि के आरम्भ से उसका होना उसके ईश्वरकृत होने का अकाट्य प्रमाण है।

यह सम्भव है कि आर्य जाति समय-समय पर इस आदर्श से गिर गई हो और उसने सन्मार्ग को छोड़कर ठोकरें खाईं हों, परन्तु यह तो होगा मनुष्यों का दोष, उनकी निर्बलता, उनका स्वार्थ। इसमें वेदों का तो कोई दोष नहीं। श्री पं० जवाहरलाल जी ने शिकायत की है कि आर्य समाज और स्वामी दयानन्द उन सिद्धान्तों का परित्याग करना चाहते हैं जो सुधार के रूप में वेदों के पश्चात् हिन्दू सुधारकों की ओर से किए गए। परन्तु यदि विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि वह वैदिक सिद्धान्तों को उन्नतिशील नहीं, अपितु अवनतिशील बनाते हैं। उदाहरण के लिए, श्री शंकर स्वामी ने अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया। लोग समझते हैं कि वैदिक सिद्धान्तों का यह सुधार है। बौद्ध मत का खण्डन करने के लिए सम्भव है यह कुछ लाभदायक ठहरा हो, परन्तु इस सिद्धान्त ने वैदिक धर्म की सजीवता नष्ट करके मायावाद का प्रचार कर दिया जो वैदिक ऋषियों को कभी अभीष्ट न था। इसी प्रकार हिन्दू जाति ने वैदिक धर्म की प्राचीन शुद्धता को छोड़कर अनेक नवीन बातें मिला दीं, जिनके कारण आज सनातन धर्म चूं-चूं का मुरब्बा हो गया है। यह सुधार नहीं अपितु बिगाड़ है। इसीलिए स्वामी दयानन्द ने कहा था कि 'वेदों को ओर लौटो' (Back to the vedas)। क्यों? इसलिए कि सन्मार्ग छोड़ आए। सीधा रास्ता पीछे रह गया। किस ओर चल रहे हो? वह अभीष्ट स्थान पर पहुंचानेवाला नहीं, अपितु दूर ले जानेवाला है। लौटो! लौटो!! जितनी जल्दी लौटोगे उतना ही अच्छा रहोगे। जिस मार्ग पर चल रहे हो उस पर एक कदम आगे बढ़ाना ही निर्दिष्ट स्थान से दूर होना है।